Powered By Blogger

Monday 14 February 2011

आदिवासियों का प्रणय पर्व भगोरिया



<
आदिवासियों का प्रणय पर्व भगोरिया
लेखक परिचय
सतीश सिंह


श्री सतीश सिंह वर्तमान में स्टेट बैंक समूह में एक अधिकारी के रुप में दिल्ली में कार्यरत हैं और विगत दो वर्षों से स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। 1995 से जून 2000 तक मुख्यधारा की पत्रकारिता में भी इनकी सक्रिय भागीदारी रही है। श्री सिंह दैनिक हिन्दुस्तान, हिन्दुस्तान टाइम्स, दैनिक जागरण इत्यादि अख़बारों के लिए काम कर चुके हैं।

-------------------------------------------------------------------------------

आधुनिकता का लबादा ओढ़कर हम धीरे-धीरे अपनी सभ्यता, संस्कृति, परम्परा और पहचान को भूलने लगे हैं। जबकि हमारे रीति-रिवाज हमारे लिए संजीविनी की तरह काम करते हैं। हम इनमें सराबोर होकर फिर से उर्जस्वित हो जाते हैं और पुन: दूगने रफ्तार से अपने दैनिक क्रिया-कलापों को अमलीजामा पहनाने में अपने को सक्षम पाते हैं।

फाल्गुन महीने में ठीक होली से पहले मध्यप्रदेष के झाबुआ जिले और उसके आसपास के क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी प्रणय पर्व ‘भगोरिया’ को पूरे जोश-खरोश के साथ मस्ती एवं आनंद में डूबकर मनाते हैं। इस समुदाय के बीच में बाजार को हाट कहा जाता है, जो एक निश्चित अंतराल पर लगता है। इस हाट में इनके जरुरत की हर वस्तु उपलब्ध रहती है। भगोरिया पर्व का इस हाट से अटूट संबंध है। क्योंकि इस पर्व की शुरुआत फाल्गुन महीने में लगने वाले अंतिम हाट वाले दिन से होता है।

लगभग सात दिन तक चलने वाले इस पर्व में जबर्दस्त धूम-धाम रहती है। उस क्षेत्र में अवस्थित सभी गांव व कस्बे से आकर आदिवासी इस पर्व में शामिल होते हैं। युवाओं के बीच अच्छा-खासा उत्साह रहता है। उनकी मस्ती देखने लायक रहती है।

हाट में हर प्रकार के अस्थायी दुकान लगे रहते हैं। पान, गुलाल और शृंगार के दुकानों में खूब चहल-पहल रहती है। युवाओं के वस्त्र भड़कीले और अपने प्रियतम या प्रियतमा को आकर्षित करने वाले होते हैं।

मुँह में पान का बीड़ा या हाथों में कुल्फी का मजा लेते हुए युवक-युवतियों तथा किषोर-किशोरियों को आप आसानी से हाट में देख सकते हैं। पूरा माहौल हँसी-ठिठोली व मस्तीभरा रहता है। आदिवासी बालाओं से छेड़खानी करने वाले आदिवासी युवाओं को इस कृत्य के लिए कोई सजा नहीं दी जाती है। कोई इसे बुरा नहीं मानता है। सबकुछ उनके रीति-रिवाज का हिस्सा होता है।

रंग और गुलाल से लोग इस कदर एक-दूसरे को रंग देते हैं कि कोई पहचान में नहीं आता है। संगीत तथा लोक नृत्य का समां इस तरह से बंधता है कि सभी मौज-मस्ती, उमंग एवं उल्लास में अलमस्त हो जाते हैं।

व्यापक स्तर पर मिठाई व नमकीन खरीदी जाती है। घर में पकवान बनाए जाते हैं। खुले मैदान में बैठकर मांस व मदिरा का भी सेवन किया जाता है।

आदिवासियों के लिए इस पर्व की महत्ता अतुलनीय है। इस पर्व में अपनी सहभागिता के लिए दूसरे प्रदेश में या दूर-दराज में रहने वाले आदिवासी भी अपने गांव व कस्बे लौट जाते हैं।

दरअसल इस पर्व में जीवन साथी का चयन किया जाता है। इसलिए इस पर्व का महत्व बेषकीमती है। युवा सज-धजकर उसे पान का बीड़ा खिलाते हैं, जिसे वे अपना हमसफर बनाना चाहते हैं। यदि कोई युवती पान का बीड़ा खाने के तैयार हो जाती है तो माना जाता है कि वह विवाह के लिए तैयार है।

इस मूक सहमति के बाद दोनों अपने घर से भाग जाते हैं। आमतौर पर कोई इसका प्रतिवाद नहीं करता है। फिर भी परिवार द्वारा विरोध जताये जाने की स्थिति में पंचों के हस्तक्षेप के बाद ही उनका विवाह सम्भव हो पाता है।

पान का बीड़ा खिला कर अपने प्रेम का इजहार करने के अलावा इस आदिवासी समुदाय में अपने प्रेमिका को चूड़ी पहनाकर भी अपने प्रेम को दर्शाने का चलन है। अगर किसी युवती को कोई युवक चूड़ी पहना देता है तो माना जाता है कि वह उसकी पत्नी बन गई।

गौरतलब है कि 4-5 सालों से इस पर्व के प्रति आदिवासियों की उदासीनता स्पष्ट रुप से दृष्टिगोचर हो रही है। भगोरिया हाट के प्रति आदिवासियों का रुझान कम हो चुका है। दूसरे प्रदेश में रहकर अपनी जीविका का निर्वाह करने वाले इस समुदाय के सदस्य इस पर्व के अवसर पर अपने पैतृक गाँव व कस्बे आने से परहेज करने लगे हैं।

इतना ही नहीं अब आदिवासी युवा इन पध्दतियों से विवाह करने में हीनता महसूस करने लगे हैं। उनको लगता है कि वे अधतन जमाने के साथ कदम-से-कदम मिलाकर नहीं चल पा रहे हैं।

पर यहाँ विडम्बना यह है कि इस तरह की सोच उनको खुद अपने जड़ों से अलग कर रहा है, बावजूद इसके उनको धीरे-धीरे अपने मरने का अहसास नहीं हो पा रहा है।

No comments:

Post a Comment